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आज बांग्लादेश भारत के टूटे हिस्से से बना राष्ट्र है, संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर चीन तक अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये भारत को घेरने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वहाँ की लाखों मानव आबादी रोजगार व अनाज की कमी, जीवनयापन के सीमित संसाधन और प्राकृतिक असंतुलन की वजह से बांग्लादेश छोड़ चुकी है। दिल्ली, बिहार, बंगाल, असम, पूर्वोत्तर राज्यों, दक्षिण भारत आदि में बसी ये जनता किसी राष्ट्र के नाम पर नहीं बल्कि एक सुलभ जीवन जीने के लिए भारत का रुख कर रही है। यही हाल भारत के पश्चिमी हिस्से अर्थात पाकिस्तान और अफगानिस्तान का भी है. यदि सीमाओं पर सैनिक इतने मुस्तैद न हों तो आतंकवाद तो कम लेकिन वहाँ की जनता जो बेइंतहा जुल्म और अनिश्चित जीवन संघर्ष में पिस रही है अब तक भारत का हिस्सा हो चुकी होती।
वहाँ के निवासियों की आकांक्षा और कौतूहल में भारत है।
भारत का विभाजन करके अपनी स्वार्थ पूर्ति के ध्येय में चिंतन करने वाले अल्पबुद्धि चरमपंथियों, एक जीवित राष्ट्र की प्रत्येक ईकाई के महत्व को समझो।
कश्मीर जो भारत के सूफी आध्यात्मिक इस्लाम का केंद्र था आज मूर्ख राजनीतिज्ञों की स्वार्थ लिप्सा के कारण कई टुकड़ों में बंट चुका है एक तरफ लोभी कुटिल स्वार्थी चीन हिस्सा हड़पे बैठा है, तो दूसरी तरफ धर्म की मूढ़ता और विकसित राष्ट्रों की कठपुतली बना पाकिस्तान आधे कश्मीर को दबाये हुये है और तीसरी तरफ इन सबके बीच भी कश्मीर की अस्मिता को बचाकर उसको जीवित रखने के लिए सर्वस्व झोंकता एक समभाव राष्ट्र भारत।।।।।
हे भारत की सवा अरब जनता और कश्मीर के एक करोड़ सूफियों, भले ही हमारे कई धर्म हों, कई पंथ हों, कई भाषाएँ और कई लिबास हों, अफगान-द्रविड़-मंगोल जैसी शक्लें लिए हम किसी भी प्रांत में बसते हों लेकिन जिस प्रकार माता-पिता के चेहरे से भिन्न होते हुये भी उसकी संतान के डी॰एन॰ए॰ व आर॰एन॰ए॰ गुणसूत्र, विरोधी शिक्षा और असामान्य सामाजिक परिवेश में भी अपना अस्तित्व सँजोये रहते हैं और वक्त आने पर अपने को प्रस्फुटित करते हैं उसी प्रकार हम चाहे जितना भी बंटे हों लेकिन हमारे भारतीय संस्कार हमें विश्व भर के मानवों से अलग पहचान देते हुये एकता के सूत्र में पिरोते हैं। कश्मीर का मुसलमान जब गर्व से अपने राजा ललितादित्य के मार्तंड मंदिर के अद्भुत सूर्य विज्ञान, 8400 किलो सोने की शिव मूर्ति और ईरान से लेकर बंगाल तक फैले महान साम्राज्य का वर्णन करता है उस अपने महान सम्राट का वर्णन जिसने चीन और यूरोप के साम्राज्यों को भी झुका दिया था तो शायद उसके खून में बसा डी॰एन॰ए॰ और आर॰एन॰ए॰ का गुणधर्म हिलोरें मार रहा होता है।
भारत को धर्म के नाम पर राष्ट्रभक्ति की प्रतिज्ञा करवाने वालों की आँखों के सामने 1948 के भारत और पाकिस्तान के मध्य युद्ध में प्राण देने वाले नौशेरा के शेर ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान का चेहरा क्यों नहीं आता जिन्हें पाकिस्तान अपना सेनाध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव दे चुका था लेकिन उस अविवाहित योगी ने अपनी मातृभूमि के लिए प्राण देना श्रेयस्कर समझा। पेटन टैंकों से छलनी हवलदार अब्दुल हमीद का रक्तरंजित शव भारत माता की गोद में पड़ा क्यों नहीं दिखाई देता जिन्होने पाकिस्तानी सेना के टैंको को अपनी जमीन पर पाँव रखने से पहले ही नेस्तनाबूद कर दिया था। सत्ताईस वर्षीय अशफाक़ उल्ला खाँ आखिर किस उम्मीद से पं॰ राम प्रसाद बिस्मिल के साथ खड़े होकर फांसी के फंदे को चूम रहे थे और वतन की मिट्टी को माथे पर लगा रहे थे या 1857 की क्रान्ति की सजा में दोनों बेटों के कटे शीश देख द्रवित बूढ़े बहादुर शाह जफर की यंगून जेल में लिखी रुबाइयों में अपनी धरती की मिट्टी में दफन होने की चाह उन्हें शिवाजी की देशभक्ति से कमतर नहीं सिद्ध करती। वंदे मातरम की दुहाई देते लोगों को ये भी देखना चाहिए की पाँच बार नमाज में झुक कर माथे से धरती को चूमने के संस्कार के पीछे का तर्क और विज्ञान क्या है……….
भारत को खतरा हिन्दू और मुसलमान से नहीं है बल्कि इनके अलगाव को भड़का कर अपने हित साधने वाली विदेशी ताकतों से है। हिमांचल के हिमालय पर्वतों पर योग की अलौकिकता पेश करते सिद्ध हैदा खाँ बाबा की आकाश विचरण की किवदंतियाँ, “कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर। न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।। की अदम्य आध्यात्मिकता का परिचय देते कबीर बाबा, राधा-कृष्ण के प्रेम के जरिये महान सूफियत को जन्म देती रसखान की अलौकिक वाणी, नानक की शांत आध्यात्मिकता से प्रभावित विश्व को ॐ और आमीन का संदेश देने वाले भाई मरदाना जी जिन्होने संगीत को अध्यात्म से जोड़ कर गुरुवाणी का प्रसार किया, गुरुद्वारे में बजते वीणा की हल्की धुनों में खो जाने वाला अध्यात्म भारतीय इस्लाम और भारतीय हिन्दुत्व को एकाकार कर देता है तथा शिव के सूफियाने संगीत में दीन दुनिया, जात-पांत, ऊंच-नीच, भौतिकता-प्राकृतिकता से परे मानवता के उत्कृष्ट चरम पर स्थापित कर परमात्मा में विलीन कर देता है ये भारत का अनूठा संसार।
काश की हम लोग इन चंद कुटिल स्वार्थी तत्वों का सामना कर सकें। अपने मस्तिष्क की आवाज़ से मीनारों की गूँजती तकरीरों और मंदिरों से हुंकारते नेताओं की आवाज़ों का विश्लेषण कर सकें और उसके पीछे छिपे तत्वों के प्रति मुखर हो सकें।
काश कि दीमापुर की भीड़ का हिस्सा बनने से पहले तथ्यों का संज्ञान ले सकते या पाकिस्तान के सियालकोट के दो भाइयों की नृशंस हत्या वाले वीडियो से बनी सी॰डी॰ दिखाकर मुजफ्फरनगर उबालने वालों की मंशा समझ सकते।
आज चीन हो, अमेरिका हो, आई॰एस॰आई॰ हो या विकसित देशों का घृणित मीडिया, संचार व खुफिया तंत्र हो जिनसे चुटकियों में अफवाहों को फैला कर उन्मादी भीड़ के जरिये जघन्य अपराध कराये जा सकते हैं और राष्ट्र की विकासोन्मुख ऊर्जा का पतन किया जा सकता है।
वर्तमान पीढ़ी को मिल कर हमारे भविष्य को नष्ट करने वाली कुटिल चालों का सामना करना होगा और अपने लोकतान्त्रिक सरकारों और मूल्यों को सहारा देना होगा। निश्चित ही सबमें कमियाँ होती हैं लेकिन इनका विरोध और समर्थन भारत हित के अनुरूप करना होगा न की विदेशी शक्तियों को मजबूत करने की दिशा में।
विश्व एक भयानक संक्रमण से गुज़र रहा है।
और भारत को इसका हल खोजना है।
चीन द्वारा पाक अधिकृत कश्मीर और अकसाई चीन इलाके में भारी ड्रिलिंग और सुरंग बनाती परियोजनाएँ एक महाविनाश का संकेत दे रही है. हिमालय श्रंखला और हिंदुकुश श्रेणी में चीनी अतिक्रमण के लिए पाकिस्तान का खुला आमंत्रण भारतीय उप महाद्वीप के लिए बेहद आत्मघाती सिद्ध होगा।
जिसकी शुरुआत हो चुकी है। भूमि को खिलौना समझकर खेलने वाला मानव स्वपतन को उन्मुख हो चुका है. कश्मीर, हिमांचल, उत्तराखंड या समूचे उत्तर भारत में मार्च तक सात पश्चिमी विक्षोभों से विरल वर्षा, ओले और तूफानों के जरिये कृषि की तबाही के रूप में भविष्य की चेतावनी का संकेत दे दिया है।
विश्व भर के धन लोभी मानवों द्वारा ध्रुवों को क्षति पहुँचाने से ध्रुवीय ऊर्जा और चुंबकीय गुणों में व्यवधान पड़ रहा है, जिसके फलस्वरूप विश्व के कई देश भयानक जलवायु अस्थिरता से जूझ रहे हैं।
भारत पर भी इसकी काली छाया पड़ रही है। हालांकि भारतीय जलवायु की चहुगुणी विशेषता हमें सुरक्षित रखने की एक अनूठी व्यवस्था रखे है लेकिन हमारे द्वारा हिमालय के सरंक्षण में विफल होना पहाड़ी बस्तियों के विनाश का मुख्य कारण होगा। कश्मीर-हिमांचल-उत्तराखंड-नेपाल जो की पश्चिमी विक्षोभ को संभालते थे उनमें शंकुधारी वनों की अनुपस्थिति में प्रकृति का स्व-संरक्षण सिद्धान्त कार्य करेगा. बारिश और बर्फीले तूफानों द्वारा हिमालय को पुनः सुरक्षित और जैव सम्पदा का धनी बनाने की प्रकृति कवायद करेगी. लेकिन प्रकृति के विरूद्ध चल रही परियोजनाओं का खामियाजा सबसे अधिक पहाड़ों से घिरी निचली कश्मीर घाटी और हिमालय से निकलती पाँच नदियों के देश पाकिस्तान की बहुसंख्यक आबादी को ही झेलना है।
हिमांचल का हिमपात, चीन की भयंकर बाढ़ें, उत्तराखंड में बादलों का फटना, नेपाल का भूस्खलन और बिहार में पहाड़ों से छूटा पानी मानवता को व्याकुल करेगा और उन्हें सुरक्षित स्थान पर जाने पर मजबूर करेगा।
अब इसके बाद पूर्वी भारत के समुद्र में बनने वाले दाब से बांग्लादेश और तटीय भारत में चक्रवातों का प्रकोप होगा। वर्षा के असमान वितरण से मराठवाडा और मध्य भारत तो सूखे रहेंगे लेकिन मैदानी इलाकों में बेमौसम वर्षा कृषि को गंभीर क्षति पहुंचाएगी। उत्तर भारत का मैदानी इलाका लगभग मानव जीवन को बचाने में कारगर होगा इसी वजह से यहाँ जनसंख्या भार बढ़ जाएगा परंतु सीमित संसाधनों की छीना झपटी में मानवीय अपराधों की बढ़ोत्तरी का मूक गवाह भी बनेगा।
हे भारतीय उप महाद्वीप के राष्ट्राध्यक्षों, धर्मज्ञों, राजनीतिज्ञों, मीडिया दिग्गजों और कार्पोरेटरों अपनी संकीर्ण अभिलाषाओं को छोड़ इस जीवित धरा को बचाने के प्रयास में लग जाओ।
दो सालों के अंदर ही हमें प्राकृतिक संकेतों के आधार पर उपाय स्थापित करने होंगे अन्यथा दस साल होते होते हम इस धरा से सत्तर प्रतिशत मानव को खो देंगे। धर्म, सीमाओं और विभिन्नताओं में उलझे पूर्वजों को छोड़ भविष्य की पीढ़ी को सुरक्षित करना वर्तमान पीढ़ी का मुख्य कर्तव्य है। बहुत तेजी से हमें सरोवर, झील, तालाबों, बावड़ी, नहरों आदि का प्राकृतिक ढालों के अनुरूप विस्तृत निर्माण करना होगा जहां ये वर्षा का पानी पुनः धरती के भीतर पहुँचा सकें. सम्पूर्ण भारत में जल विज्ञान की चिरंजीवी प्राचीन भारतीय तकनीकी का प्रयोग करना होगा. विश्व के अन्य देशों में तबाही दूसरी तरह की होंगी अर्थात वायु, बर्फ और मृदा के जरिए लेकिन भारत में वर्षा अर्थात जल की तबाही होगी क्योंकि सभी तरह के विक्षोभों को थाम कर वृष्टि कराने वाला हिमालय मस्तक ताने खड़ा है। प्रकृति संकेत दे रही है की हमारी संरचनाओं और छोटे पौधों की भीषण खेती की वजह से जिन बड़े जंगलों के साथ अन्याय हुआ था अब उसकी भरपाई करने के लिए कमर कस चुकी है। हमें प्रकृति के साथ तालमेल बिठाता हुआ विकास करना होगा न की उसके विरुद्ध, वरना उसके अगले संस्करण में वो और शक्तिशाली प्रहार करेगी।
बड़े-दीर्घायु स्थानुकूल वृक्षों का भूमि पर आच्छादन करना होगा, प्रत्येक घर में सुविधानुसार क्यारी अथवा लताओं वाली सब्जियों को स्थान देना होगा और पर: कृषि पर निर्भरता को कम करना होगा. औद्योगिक प्रतिष्ठानों के लिए वर्तमान में प्रयोग की जा रही भूमि पर ही बहुमंजिला इमारतों का निर्माण करना होगा, भारत के सड़कों के जाल और रेलवे ट्रैकों के दोनों किनारों को व्यवस्थित ढाल देकर एकीकृत जल प्रणाली के तहत नहर नुमा जाल बिछाना होगा और उन नहरों के दोनों और विशाल वृक्षों की जैव संरक्षित पट्टी का निर्माण करना होगा… ये नहरों और वृक्षों की सघनता न केवल गाड़ियों की घर्षण से उड़ती धूल जनित फेफड़ों के रोगों को कम करेंगी वरन वायु प्रदूषण को जन्म देती विषैली गैसों के प्रभाव को भी लगभग खत्म कर देंगी साथ ही साथ भूजल बढ़ोत्तरी, कृषि जल उप्लब्धत्ता, जैविक श्रंखला संरक्षण और अचानक भारी वर्षा जल को दिशा देकर समान वितरण करते हुये बाढ़ की विभीषिका को कम करेंगी।
हिमालय से लेकर सागर तक हम भारतीयों को पुरातन प्राकृतिक विज्ञान का अध्ययन करते हुये समग्र विकास करना होगा।
ये कुछ सबसे सरल लेकिन दृढ़ निश्चय की बाट जोहते उपाय हैं, जिन्हें वर्तमान मानव अपनी संतति की रक्षा हेतु कर सकता है,
और विश्व के इस सबसे अद्भुत नैसर्गिक जीवित भारतीय उप महाद्वीप को युगों युगों तक अमर रख सकता है।
वन क्रांति – जन क्रांति
राम सिंह यादव (कानपुर, भारत)
yadav.rsingh@gmail.com
theforestrevolution.blogspot.com
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